लगती है धूप, क्योंकर परछाई दूर से

लगती है धूप, क्योंकर परछाई दूर से।
होती है जुदा, शै की शनाशाई दूर से।।

अंदाजा उम्र भर न लगा, उनको दरिया का।
जो लोग देखते रहे, गहराई दूर से।।

तमाशे के हुनर और, काबिलियत को तै।
मुद्दत से करते आये, तमाशाई दूर से।।

इक खाक की लकीर, सी आती है दूर से।
ये आग तो किसी ने, है लगाई दूर से।।

फरेब को कहीं से, मुनासिब है देखना।
कब देती है हकीकत, दिखाई दूर से।।

हर लफ्ज पे उसके, गर्द थी राह की।
लगता था बात चल के, थी आई दूर से।।

तुम गिरने के खौफ से,वाकिफ नहीं राकिम।
तुमने देखी है परवाज, की उँचाई दूर से।।